Betul – स्कूटी वाली टीचर की कहानी,फरिश्ता बनीं टीचर ,बच्चो के लिए खुद करती है यह विशेष सेवा

Betul – स्कूटी वाली टीचर की कहानी,फरिश्ता बनीं टीचर,बच्चो के लिए खुद करती है यह विशेष सेवा
सरकार शिक्षा व्यवस्था को लेकर बड़े-बड़े दावे करती हैं। बच्चों के भविष्य के नाम पर कई योजनाओं में करोड़ों रुपए खर्च भी करती है। लेकिन, ग्रामीण इलाकों में अभी भी शिक्षा व्यवस्था बदहाल हैं। इन हालातों में भी कुछ टीचर ऐसे है जो खुद ही शिक्षा की अलख जगा रहे हैं। ऐसी ही बानगी बैतूल जिले में देखने को मिली। जहां एक महिला टीचर रोज 17 बच्चों को उनके घर से स्कूटी से स्कूल लाती हैं। फिर छोड़ने भी जाती हैं। उन्हें सब स्कूटी वाली मैडम के नाम से जानते हैं।
दरअसल, जिले के भैंसदेही का धुड़िया दुर्गम इलाका है। यहां गांव से स्कूल की दूरी दो किमी है। साधन नहीं होने के कारण बच्चों को पैदल स्कूल जाना होता है। ऐसे में ज्यादातर बच्चों ने स्कूल जाना ही बंद कर दिया। नतीजा यह हुआ कि स्कूल बंद होने की कगार पर पहुंच गया। ऐसे में स्कूल बंद होने से बचाने का बीड़ा शिक्षिका अरुणा महाले ने उठाया। उन्होंने स्कूल छोड़ चुके बच्चों को स्कूटी से घर से लाना और ले जाना शुरू किया। अभी वे 17 बच्चों का लाती और छोड़ती है। अब हालत ऐसी है यहां बच्चों की संख्या 85 तक पहुंच गई है। उन्हें लोग स्कूटी वाली टीचर के नाम से पुकारते हैं।
मेरी कोई संतान नहीं, ये ही मेरे अपने बच्चे
मेरा नाम अरुणा महाले हैं। मैं भैंसदेही के धुड़िया गांव के स्कूल में पदस्थ हूं। मैंने 7 साल पहले जब जॉइन किया था तो यहां पर 10 बच्चे पढ़ते थे। मैंने इसका कारण पूछा। लोगों ने बताया कि दुर्गम इलाका होने के कारण बच्चे स्कूल आने से बचते हैं। धीरे-धीरे यह संख्या घटती रही। एक समय ऐसा भी आया कि स्कूल बंद होने की कगार पर पहुंच गया। मुझसे ये देखा नहीं गया। तब मैंने एक कोशिश की। मैंने बच्चों को उनके घर से स्कूटी पर बैठाकर स्कूल लाना शुरू किया। एक बार में 3 से 4 बच्चे ही स्कूटी पर बैठ सकते थे। मेरी कोशिश रहती कि मैं तीन चार फेरे लगा लूं। इससे ज्यादा से ज्यादा बच्चों को स्कूल तक ला सकती थी।
गांव से स्कूल की दूरी 2 किमी होने से इसमें एक घंटा लग जाया करता था। धीरे-धीरे मेरी कोशिशें रंग लाने लगी। मुझे देख कुछ बच्चों के परिजन अपने पड़ोस के बच्चों को भी स्कूल तक लाने लगे। मैंने भी बच्चों का लाने और ले जाने का काम जारी रखा। आज स्कूल में 85 बच्चे पढ़ते हैं। सरकार ने भी इस स्कूल को बंद करने का फैसला वापस ले लिया है। आज भी मैं 17 बच्चों को लाने लेकर जाने का काम करती हूं। मैं खुद के पैसों से हर सप्ताह दो बार अपनी स्कूटी का टैंक फुल कराती हूं। मेरी कोई संतान नहीं है। स्कूल के बच्चे ही मेरी अपनी संतान है।
अपने खर्च पर रखा अतिथि शिक्षक
टीचर अरुणा ने स्कूल में एक अतिथि शिक्षक भी रखा है। इस राशि का भुगतान वह खुद अपनी सैलरी से करती हैं। इतना ही नहीं स्कूल में अगर किसी बच्चे के पास रबर, पेंसिल और कॉपी किताब नहीं हो तो उन बच्चों को खरीदकर देती हैं।
ऐसे शिक्षक मिलना दुर्लभ: परिजन
इन्हीं बच्चों में से एक की परिजन रूपा बामने कहती हैं- मैडम के स्नेह और बच्चों का ध्यान रखने से हमारे बच्चे पढ़ाई में भी मजबूत हो रहे हैं। आज के दौर में ऐसा शिक्षक मिलना ही दुर्लभ है। अगर समाज मे ऐसे और भी शिक्षक हों तो शायद ही कोई बच्चा शिक्षा से महरूम रह पाएगा।