आखिर क्यों भारतीय किसानों ने नील की खेती करना किया था बंद जानिये पूरी खबर

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नील की खेती : आखिर क्यों भारतीय किसानों ने नील की खेती करना किया था बंद जानिये पूरी खबर भारत में नील की खेती का रहस्य बहुत पुराना है भारतीय लोग इसका प्रयोग अपने ही घरो में करते थे जैसे की घरो की पुताई करने में और अधिक मात्रा में नील की खेती ग्रामीण क्षेत्रों में में की जाती थी

नील की खेती की शुरुआत 1777 में बंगाल में हुई

नील की खेती की शुरुवात कई साल पहले खेती की शुरुआत 1777 में बंगाल में हुई थी इसकी खेती में अंग्रेजों की बहुत दिलचस्पी थी क्योंकि यूरोप में नील की अच्छी मांग थी. दूसरी तरफ भारतीय किसान नील की खेती करने से बचते थे. इसका सबसे बड़ा कारण था कि नील की खेती जिस भी जमीन में की जाती थी वह जमीन बंजर हो जाती थी और बंजर जमीनों पर वापस से फसल नहीं हो पाती थी इसलिए भारतीय किसान नील की खेती से बचते थे लेकिन अंग्रेज नील की खेती जबरदस्ती डरा धमका कर करवाने लगे और नील को अपने देश भेजने लगे

नील की खेती में किसानों का दोहरो शोषण किया जाता था
नील की खेती में किसानों का दोहरो शोषण किया जाता था नील की खेती में किसानों को कोई फायदा नहीं हो रहा था भारतीय किसानो से ब्याज दरें बहुत अधिक थी साथ ही उन्हें नील बहुत कम कीमतों में बेचना पड़ता था जिससे भारतीयों किसानो को बहुत घाटा होता था साथ में उनकी जमने बंजर होते जा रही थी इसीलिए भारतीय किसानो को जमींदारों और अंग्रेजों के दोहरे शोषण का शिकार होना पड़ता था
1833 में एक अधिनियम ने नील के किसानों की कमर ही तोड़ कर रख दी. इस अधिनियम द्वारा बागान मालिकों को किसानों से निपटने के लिए खुली छूट दी गई थी। जमींदार, जो नील की खेती से लाभान्वित होने के लिए खड़े थे, ने बागान मालिकों का पक्ष
किसानों में आक्रोश पनपने लगा और फूटा 1859 में बंगाल में. नील की खेती करने वाले किसानों ने बगावत कर दी. यह विद्रोह करीब एक साल तक चला

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आजादी के करीब 75 साल बाद एक बार फिर लखनऊ जिले में नील की खेती शुरू हुई

आजादी के करीब 75 साल बाद एक बार फिर लखनऊ जिले में नील की खेती शुरू हुई है। कुर्सी रोड स्थित अमरसंडा गांव में किसान हमजा जैदी ने अपने फॉर्म हाउस पर करीब एक एकड़ में यह खेती कर रहे हैं। उनका दावा है कि इसमें लागत से चार गुना तक मुनाफा है। खेती करने वालों का यह भी दावा है कि यह बहुत ही आसान खेती है।

लागत 25 हजार मुनाफा 75 हजार रुपए
हमजा बताते हैं कि एक एकड़ में 25 से 30 हजार रुपए का खर्च आता है। मगर, इसको बेचने के बाद 90 हजार से एक लाख रुपए तक मिलते हैं। उन्होंने बताया कि इसके बीज को छिड़क कर और जमीन में गाड़ कर दो तरह से खेती की जा रही है। इसकी 7-8 बार सिंचाई करनी होती है। जमीन को अगर समतल कर दिया जाए, तो पानी की लागत कम होती है। उन्होंने बताया कि आम राज्यों में एक एकड़ में 30 लाख लीटर पानी लग जाता है, लेकिन यहां 7 लाख लीटर पानी से काम चल रहा है।

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नील के यह पौधे काफी घने होते हैं।

नील की खेती :

तमिलनाडु में सबसे ज्यादा खेती मौजूदा समय तमिलनाडु में इसकी खेती सबसे ज्यादा होती है। किसान राम खेलावन बताते हैं कि वहां करीब 1500 एकड़ में नील की खेती होती है। इसका इस्तेमाल कपड़ों को ड्राइ करने में सबसे ज्यादा होता है। 19वीं शताब्दी में बिहार, बंगाल, उड़ीसा और यूपी इस खेती का मुख्य केंद्र हुआ करता था।

नील की खेती : 90 से 100 रुपए किलो में बिकती है सूखी पत्ती
किसान बताते हैं कि इसकी पत्ती सूखने के बाद 90 से 100 रुपए किलो तक बिकती है। ऐसे में एक एकड़ में 1000 किलो पत्ता निकलता है। उसको बेचने के बाद 90 हजार से एक लाख रुपए तक किसान के पास आते हैं। इसके अलावा कोई जानवर इसको खाता भी नहीं है। ऐसे में छुट्‌टा पशुओं से भी इनकी बहुत ज्यादा हिफाजत नहीं करनी पड़ेगी। लखनऊ में तालकटोरा इंडस्ट्रियल इलाके में इसकी फैक्ट्री है, जहां इस समय में नील तैयार की जाती है

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